Monday 9 July 2012

फर्क


 कभी सोचता हूँ  
कितना फर्क होता होगा!
भँवरे की गुन-गुन और
तुम्हारी रागिनी में

चाँद की चांदनी और
तुम्हारी रौशनी में

सोचता हूँ
कितना फर्क होता होगा!
हिरन की चपलता  
और तुम्हारी चाल में

नदी के मोड़ 
और तुम्हारी अंगड़ाई में

सोचता हूँ कितना फर्क होगा!
समंदर 
और तुम्हारी दिल की
गहराईयों  में 

कितना फर्क हुआ करता होगा! 
झील की लब लब
और तुम्हारी आँखों की डब-डब में

और यह भी सोचता रहता हूँ 
कि कितना फर्क होता होगा!

गुलाब और तुम्हारे 
होठों की सुर्ख़ियों के बीच

यह भी सोचता हूँ 
कि कितनी दूरी होगी!

चाँद और चकोर के बीच 

और क्या उतनी ही 
नजदीकी होगी
मेरे और तुम्हारे बीच

इसी सोच और दूरी के आंकलन में
और भी तुम्हारे पास आता जाता हूँ

और सभी आकलनों को झूठा 
साबित करती हुई तुम
समाने लगती हो 
इस दिल की गहराईयों में

और मैं जुट जाता हूँ
गहराईयों को और गहरा करने की 
एक असफल सी
उधेड़-बुन में .

© : सर्वाधिकार सुरक्षित -उमेश चन्द्र पन्त 'अज़ीब'
आज दिनांक 9 जुलाई 2012 को 4:58 पर