कर गुजरना है कुछ ग़र, तो “जुनूं” पैदा कर
हक को लड़ना है, रगों में “खूं” पैदा कर
वतन की चमक को जो बढ़ाये
तेरी आँखों में ऐसा “नूर” पैदा कर
वतन पे कुरबां होना शान है, माना
तू बस “अरमां” पैदा कर
“शम्सीर” बख़ुदा मिलेगी तुझे तू
तू हाथों में “जान” पैदा कर
अहले वतन को जरूरत है तेरी
तू हाँ कहने का “ईमान” पैदा कर
सीसा नहीं, हौसला-ए-पत्थर है उनका
तू साँसों में बस “आंच” पैदा कर
फ़तह मिलकर रहेगी तुझे
हौसला पैदा कर
रौंद न पाएंगे तुझे चाह कर भी वे
कुछ ऐसा “मंज़र” राहों में पैदा कर....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....
होंगे "ख़ाक" वे, सामने जो आयेंगे
ReplyDeleteतू सीने में बस, "आग" पैदा कर....