Tuesday 29 November 2011

उनके जानिब


आज यूँ ही उन का जिक्र हो आया
बरसों पहले जिन यादों को में था, खो आया
ख़ुशी की चाह में,मैं था गया उनके जानिब
न मिली न सही,बस रो आया
ज़ज्बात समझे बादलों ने मेरे
बरसते रहे रात भर, मैं यादों को धो आया
सहरा में न था एक भी दरख़्त
छाँव न थी अपनी, में धूप में ही सो आया
अकेला ही चला मैं, राह-ए-ग़ुरबत की
न था हमदम, न ही कोई साया
दाम लगाया मेरी मुहब्बत का उन्होंने
मैं सीने में खुद के, काँटों का बाड़ खींच आया
सलामती की दुआ थी उनकी,इस दिल में
हो जाता क़त्ल-ए-आम, मैं बस जबड़े 'भींच'आया....उमेश चन्द्र पन्त 'अज़ीब'....

Friday 25 November 2011

चेहरा


सम्हालो खुद को, इस से पहले के देर हो जाये 
लोग कहते है के ज़माने की 'तबीयत' बदल रही है|
तबीयत किस 'तासीर' की है, खुदा जाने?
हमें तो लगता है के 'नीयत' बदल रही है|
आइने में फ़कत झाँकने से कुछ हासिल न होगा
दिखना चाहिए के सचमुच, "सीरत" बदल रही है??....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

Wednesday 23 November 2011

वतन


कर गुजरना है कुछ ग़र, तो जुनूं पैदा कर
हक को लड़ना है, रगों में खूं पैदा कर
वतन की चमक को जो बढ़ाये
तेरी आँखों में ऐसा नूर पैदा कर  
वतन पे कुरबां होना शान है, माना
तू बस अरमां पैदा कर
शम्सीर बख़ुदा मिलेगी तुझे तू
तू हाथों में जान पैदा कर
अहले वतन को जरूरत है तेरी
तू हाँ कहने का ईमान पैदा कर  
सीसा नहीं, हौसला-ए-पत्थर है उनका
तू साँसों में बस आंच पैदा कर 
फ़तह मिलकर रहेगी तुझे  
हौसला पैदा कर
रौंद न पाएंगे तुझे चाह कर भी वे
कुछ ऐसा मंज़र राहों में पैदा कर....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

Tuesday 22 November 2011

शून्य की खोज में.


वह चला जाता है शून्य की खोज में
बियाबान के बीच से पर्वतों के उस पार
वह चला जाता है
तमाम झंझावातों को झेलता हुआ वह चला जाता है
शून्य की खोज में
पीछे छोड़ते हुए हर ख़ास ओ आम
दुनिया के आडम्बरों ताक मै रख कर तमाम
वह चला जाता है
शून्य की खोज में
मत रोको, चले जाने दो उसे
यह सोचो के वह क्यों चला जाता है?
यह सोचो के उसे समाज का कोपभाजन क्यों बनना पड़ा
क्यों सहना पड़ा उसे ये सुबकुछ
के...
...वह चला जाता है
शून्य की खोज में
शायद इसलिए न के उसने प्रेम किया था
छीन लिए गए वे सारे,..
चंद सपने जो देखे थे उसने अपने लिए
अब तो लगता है के उसने सच मैं कोई पाप किया था
के विरक्ति हो गई उसे इस संसार से
के वह चला जाता है
शून्य की खोज में
अपने प्रेमी के विछोह में
उसे जुनून है अपने प्रेम को अमरता देने का
उसे आज भी गर्व है के उसने प्रेम किया था ...
उसने नवाजा था अपनी प्रेयसी को दुनिया की सबसे बड़ी नेमत से
उसे छ्योभ है दुनिया पर....कुफ्र आता है..उसे दुनिया वालो पर
उसे विश्वास है खुद पर के
एक दिन दुनिया उसके प्रेम पर गर्व करेगी
शायद इसलिए
वह चला जाता है
शून्य की खोज में....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

रिसाला.....


रिसाला.....
चंद पन्नो की
कुछ कहानियों को अपने मैं समेटे हुए वह रिसाला...
मेज के ऊपर अधखुली....कुछ चित्रों को नुमायाँ करते हुए ....
वह रिसाला
काश कर पाती शामिल खुद मै , मेरी जिन्दगी के कुछ पन्ने भी
खुद तो पूरी हो जाती
वह रिसाला .....न मै पूरा हूँ जिन्दगी मैं.....
और अधूरी है खुद भी ......
वह रिसाला....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

तुम


खिला है चाँद फलक पर
चांदनी रात है
मन मेरा फलक है
पर मेरा चाँद तो तुम हो

फिजां रंगीन है
खिले हैं गुल, गुलिस्तां मैं
दिल मेरा गुलिस्तां है
पर मेरा गुल तो तुम हो

रोशन हैं चिराग़
है शाम-ए-महफ़िल
दिल मेरा महफ़िल है
पर मेरा चिराग़ तो तुम हो

शायरी है जवां
है, बज़्म-ए-सुवरा
दिल मेरा बज़्म-ए-सुवरा है
पर मेरी शायरी तो तुम हो....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

"शै"


चले जाना चाहता हूँ तुझ से दूर
जाऊं कहाँ??
जर्रा-जर्रा "तू" है

बन जाना चाहता हूँ "काफिर"
"
शाम-ए-मयखाना" तू है

भूल जाना चाहता हूँ तुझे
तुझमै "मैं"-औ- मुझमै "तू" है

अब सोचता हूँ के, चला जाऊं "खुदा" के पास
मेरा खुदा तो "तू" है

देखता हूँ जिधर भी मैं,
दुनिया की हर "शै" मै बस "तू" है....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

Monday 21 November 2011

जज्बात


इक जज्बात
उमड़ आया था, तूफ़ान के मानिंद
उस लम्हात
वही इक लम्हा, जिस पल तू मेरा खुदा हो गया
वही इक लम्हा
तेरे आँखों से आशनाई होने का
वही इक लम्हा
जिस मैं, दिल तेरे हुस्न पर फ़िदा हो गया

वही इक लम्हा
आज भी याद है, वही इक लम्हा
जब तू नज़रें झुका के सामने आया था
वही इक लम्हा
फक्र का, जब तू मेरे दिल में समाया था
वही इक लम्हा
जो मेरी जिन्दगी की जरुरत है
वही इक लम्हा
मेरे लिए खुदा की इबादत है
वही इक लम्हा
दिल की शहादत का सबब है
वही इक लम्हा
जो मेरा ईमान है मजहब है

वही इक लम्हा
जिससे आज भी तेरे होने का एहसास है
वही इक लम्हा
जो आब सिर्फ यादो में मेरे पास है......उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

पिया


पिया, पीहर न जाउंगी
सखियाँ तंग करत हैं
पूछें प्रेम-प्रसंग हमारे
मैं लजिया सी जाऊं
मोहे न भावे तुझ से दूरी
पीहर तुझे न पाऊँगी
पिया, पीहर न जाउंगी
मोरी तुझ से चाहत है
प्रतिपल तुझे ही ध्याऊँगी
पिया, पीहर न जाउंगी
मन मोरा तडपत, जल बिन मछली
तू है मोरा श्याम मनोहर
मैं, मीरा बन जाउंगी
पिया, पीहर न जाउंगी
नैनन में, तुझे बसाऊँगी
मन में, तोरे बस जाऊंगी
अखिल जगत, ओ मोरे पिया मैं
तोरे चरनन में पाऊंगी
पिया, पीहर न जाउंगी
पिया, पीहर न जाउंगी....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....