Tuesday 22 November 2011

"शै"


चले जाना चाहता हूँ तुझ से दूर
जाऊं कहाँ??
जर्रा-जर्रा "तू" है

बन जाना चाहता हूँ "काफिर"
"
शाम-ए-मयखाना" तू है

भूल जाना चाहता हूँ तुझे
तुझमै "मैं"-औ- मुझमै "तू" है

अब सोचता हूँ के, चला जाऊं "खुदा" के पास
मेरा खुदा तो "तू" है

देखता हूँ जिधर भी मैं,
दुनिया की हर "शै" मै बस "तू" है....उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"....

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